Jaisalmer : क्या जैसलमेर का मुस्लिम समाज सिर्फ रीलों में जीने लगा है? क्या हमारे युवाओं की असल जिंदगी का कोई मकसद बचा भी है या नहीं? जब बाकी समाज कलम, किताब और संघर्ष के रास्ते अपनी तकदीर लिख रहे हैं, तब हमारा समाज मोबाइल स्क्रीन पर टाइमपास कर रहा है. 15 साल पहले भी हम वहीं खड़े थे, आज भी वहीं हैं. फर्क बस इतना है कि सुन्नत की कीमत 500 से बढ़कर हजारों में हो गई है, लेकिन बच्चों की तालीम की कीमत अब भी हमारी नजरों में फिजूलखर्ची ही है.
अगर यकीन नहीं होता, तो ज़रा मेघवाल समाज की तरफ नजर दौड़ाइए. एक वक्त था जब उनकी हालत बेहद दयनीय थी, शिक्षा से कोसों दूर, गरीबी और हाशिए पर. लेकिन उन्होंने एक फैसला किया और किताबों को अपना हथियार बना लिया. आज नतीजा सबके सामने है. सरकारी दफ्तरों से लेकर प्रशासनिक पदों तक, हर बड़ी कुर्सी पर मेघवाल समाज का नौजवान बैठा है. उन्होंने समझा कि इज्जत, ताकत और बदलाव सिर्फ शिक्षा से आता है.
महज रिवायतों में सिमटा मुस्लिम समाज
लेकिन मुस्लिम समाज ने क्या किया? मुस्लिमों ने तो खुद को रिवायतों में ही समेट लिया. सुन्नत, खलीफे, निकाह, बारात… इन्हीं रस्मों की चकाचौंध में इतने खो गए कि आने वाली नस्लों का भविष्य ही धुंधला कर दिया. हर साल लाखों रुपये खलीफाओं पर खर्च कर दिए जाते हैं, लेकिन क्या कभी किसी खलीफा ने पूछा है कि इस मोहल्ले में कितने बच्चे आज स्कूल जा रहे हैं? कितनों ने ग्रेजुएशन पूरी की? कितनों ने कम्पटीशन एग्जाम पास किया?
युवा पीढ़ी का हाल तो और भी बुरा हो गया है. जहां एक ओर देश के बच्चे कोडिंग सीख रहे हैं, सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज के युवा टिकटॉक, इंस्टाग्राम और रील्स पर मशगूल हैं. स्टेटस, फिल्टर, और ट्रेंडिंग वीडियोज में खोते जा रहे हैं. हम ये भूल गए हैं कि रील लाइफ कभी रियल सफलता नहीं दे सकती. इंटरनेट हमारी ताकत बन सकती थी, लेकिन हमने उसे टाइमपास का जरिया बना लिया.
खलीफाओं ने शिक्षा पर नहीं दिया कोई ध्यान
जैसलमेर की मुस्लिम जमात और रहबरों की भी इसमें बड़ी भूमिका है. जिन लोगों को समाज को दिशा देनी चाहिए थी, उन्होंने मौन धारण कर लिया है. वे समाज के नाम पर सिर्फ रस्मों और दिखावे में व्यस्त हैं. खलीफाओं को बढ़ावा मिल रहा है, लेकिन क्लासरूम में बैठने वाला बच्चा उपेक्षित है. क्या यही लीडरशिप है? क्या यही रहबरी है? अगर ये रहबर वाकई समाज के भले के बारे में सोचते, तो सबसे पहले शिक्षा को प्राथमिकता देते.
अब वक्त आ गया है, जागने का. अब भी समय है अपने बच्चों के हाथ में मोबाइल की जगह किताब देने का, अपनी कमाई का कुछ हिस्सा खलीफाओं पर नहीं, अपने बच्चों की कोचिंग और कॉलेज की फीस पर खर्च करें. वरना आने वाले 15 सालों में हमारी हालत और भी बदतर हो जाएगी. तब हम सिर पकड़कर यही कहेंगे कि काश, हमने वक्त रहते कुछ किया होता. लेकिन अगर हमने अभी बच्चों की शिक्षा पर फोकस किया तो वह दिन दूर नहीं जब बाकी समाजों की तरह मुस्लिम समाज के बच्चे भी उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे हुए दिखाई देंगे.
