Bihar : सियासत में सियासत न हो तो वो सियासत नहीं हो सकती. फिर ये तो बिहार का चुनावी साल है. जहां विरोधी तो विरोधी दोस्त भी आपस में सियासी नफा-नुकसान तौलने में जुटे हुए हैं. एक तरफ एनडीए में खींचतान मची है तो दूसरी ओर महागठबंधन अंदर ही अंदर फूट के कगार पर खड़ा है. जिस तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार के सामने जमकर राजनीति की, जो बिहार में विपक्ष का चेहरा बना, आज उसे ही महागठबंधन में कांग्रेस और अन्य सहयोगी दल सपोर्ट नहीं कर रहे हैं. आज की इस रिपोर्ट में जानेंगे कि जो कांग्रेस खुद बिहार में बूथ तक भी नहीं संभाल पा रही, वो तेजस्वी यादव को सीएम फेस क्यों नहीं बनने दे रही है?
कांग्रेस को लगता है कि अगर तेजस्वी यादव को सीएम फेस बनाया गया तो यादव वोट के अलावा बाकी ओबीसी जातियां उनसे कट जाएंगी. राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडगे ने तेजस्वी को साफ कह दिया कि सीएम चेहरा हम तय करेंगे. सोचिए जो शख्स बिहार में आरजेडी को 75 सीटें दिला चुका है, जिसे जनता विपक्ष का नेता मान चुकी है, वो अब कांग्रेस की “कास्ट पॉलिटिक्स” का शिकार हो रहा है. ये वही कांग्रेस है जो खुद 70 सीटों में से सिर्फ 19 पर ही जीत पाई थी. लेकिन अब सीटों की मांग ऐसे कर रही है जैसे पूरा बिहार उसी का हो!
कांग्रेस ने कन्हैया कुमार और पप्पू यादव को मैदान में उतारा
कांग्रेस यहां सिर्फ सीटें नहीं मांग रही, वो अपनी राजनीतिक चालें भी चला रही है. तेजस्वी को टाइट करने के लिए कांग्रेस ने मैदान में दो चेहरे उतार दिए एक कन्हैया कुमार और दूसरा पप्पू यादव. ये वही चेहरे हैं जिन्हें लालू और तेजस्वी दोनों नापसंद करते हैं. लेकिन कांग्रेस जानती है कि इन्हें आगे कर अगर तेजस्वी पर दबाव बनाया गया, तो RJD झुक जाएगी.
क्या है आरजेडी की मजबूरी?
अब बात करते हैं आरेजेडी की मजबूरी की. तेजस्वी जानते हैं कि बिहार में मुस्लिम वोट कांग्रेस के बिना नहीं मिलते और अगर कांग्रेस अलग हुई तो ये वोट बिखर जाएंगे. तेजस्वी के पास विकल्प क्या है? अकेले लड़ेंगे तो मुस्लिम वोट नहीं मिलेंगे. कांग्रेस को ज्यादा सीटें देंगे तो उसका भी नुकसान उठाना पड़ेगा. ये तो ऐसा हाल हो गया जैसे अपनी शादी में कोई और दूल्हा तय करे. तेजस्वी से चाहकर भी न कांग्रेस को निगलते बन रहा है और ना ही उगलते.
एनडीए में भी सबकुछ ठीक नहीं
अब जरा एक नजर एनडीए पर भी डालते हैं. वहां भी सब कुछ ठीक नहीं है. चिराग पासवान ने अपने चाचा पशुपति पारस को किनारे कर दिया और अब चाचा महागठबंधन में शामिल हो सकते हैं. जीतनराम मांझी ने भी कह दिया कि 30 सीटें चाहिए. यानी NDA में भी अंदरखाने सीटों को लेकर सिरफुटव्वल चालू है. बीजेपी-जेडीयू में तो ‘बड़ा भाई कौन’ की लड़ाई सालों से चल ही रही है. तो फिर दोनों तरफ में फर्क क्या है. खींचतान वहां भी है और यहां भी. लेकिन फर्क ये है कि एनडीए में चेहरा तय है मोदी. लेकिन महागठबंधन में से तो चेहरा ही गायब है.
क्या एनडीए को सीधी टक्कर दे पाएगा महागठबंधन?
अगर बिहार की जनता को ये लग रहा था कि महागठबंधन एनडीए को सीधी टक्कर देगा तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. यहां हर कोई अपनी गोटी फिट करने में लगा है. कांग्रेस की नजर अपनी सीटों और अपनी पकड़ मजबूत करने पर है, चाहे इसके लिए तेजस्वी को दबाना पड़े या नया चेहरा सामने लाना पड़े. तेजस्वी यादव, जो खुद को बिहार का भविष्य मानते हैं, वो आज भी दिल्ली की मीटिंग में अपनी सीएम दावेदारी पर हामी भरवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हैरानी वाली बात तो ये है कि बिहार का अगला चुनाव विचारधारा और विकास के नाम पर नहीं लड़ा जाएगा, बल्कि यह चुनाव राजनीतिक चालबाजियों और इगो वॉर का होगा. हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि चुनाव से पहले महागठबंधन और एनडीए में ये खींचतान खत्म हो पाएगी या नहीं?
